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आ वां॑ स॒हस्रं॒ हर॑य॒ इन्द्र॑वायू अ॒भि प्रयः॑। वह॑न्तु॒ सोम॑पीतये ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ sahasraṁ haraya indravāyū abhi prayaḥ | vahantu somapītaye ||

पद पाठ

आ॑। वा॒म्। स॒हस्र॑म्। हर॑यः। इन्द्र॑वायू॒ इति॑। अ॒भि। प्रयः॑। वह॑न्तु। सोम॑ऽपीतये ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:46» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्रवायू) सूर्य्य और पवन ! जो (हरयः) हरनेवाले मनुष्य (वाम्) आप दोनों को (सोमपीतये) सोमलता के पान करने के लिये (सहस्रम्) असंख्य (प्रयः) मनोहर भाव जैसे हों वैसे (आ, वहन्तु) प्राप्त करें, उनको आप दोनों (अभि) सब ओर से बोध दीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो विद्वान् जन आप लोगों को पढ़ाय और उत्तम प्रकार शिक्षा देकर विद्वान् करते हैं, उनकी निरन्तर सेवा करो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्रवायू ! ये हरयो वां सोमपीतये सहस्रं प्रय आवहन्तु तान् युवामभिबोधयतम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वाम्) युवाम् (सहस्रम्) असङ्ख्यम् (हरयः) हरणशीला मनुष्याः (इन्द्रवायू) सूर्य्यपवनौ (अभि) (प्रयः) कमनीयम् (वहन्तु) (सोमपीतये) सोमस्य पानाय ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये विद्वांसो युष्मानध्याप्य सुशिक्ष्य विदुषः कुर्वन्ति तान् सततं सेवध्वम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे विद्वान लोक तुम्हाला शिकवून उत्तम प्रकारे शिक्षण देऊन विद्वान करतात, त्यांची निरंतर सेवा करा. ॥ ३ ॥